पिछले महीने ही चंडीगढ़ स्थित पोस्ट ग्रैजुएशन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में एनेस्थेटिक इंजेक्शन से पांच मरीजों की मौत हो गई थी। फरवरी 2020 में हिमाचल प्रदेश की एक कंपनी में बना कफ सीरप पीने से जम्मू-कश्मीर में 11 बच्चों की मौत की खबर आई थी। जाहिर है, ताजा मामले से जुड़े सारे तथ्य सामने आने ही चाहिए, वे लाए भी जा रहे हैं, लेकिन उस आड़ में समस्या और उसकी गंभीरता से इनकार नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात यह है कि कफ सीरप में मिलावट कोई नई बात नहीं, न ही इसे गलत या आपत्तिजनक माना जाता है। सवाल उसकी मात्रा का है। उसका अनुपात निश्चित है, लेकिन प्रोडक्शन कॉस्ट कम करने और मुनाफा बढ़ाने के फेर में अक्सर उसकी मात्रा तय सीमा से ज्यादा कर दी जाती है। इस पर अंकुश रखने के लिए नियम कानून ही नहीं, नियामक तंत्र भी बने हुए हैं। लेकिन देश में करीब 3000 कंपनियां और 10,500 से ज्यादा मैन्युफैक्चरिंग यूनिट हैं। जाहिर है, इन पर लगातार नजर रखने के लिए जितना बड़ा नेटवर्क और जिस स्तर की फंडिंग चाहिए, वह नहीं है।
तीसरी और सबसे बड़ी बात यह है कि फार्मास्युटिकल सेक्टर भारत के सबसे संभावनाशील सेक्टरों में है। दुनिया की फार्मेसी कहे जाने वाले भारत की दवाओं के वैश्विक कारोबार में (मात्रा के हिसाब से) एक तिहाई हिस्सेदारी है। इस तरह की घटनाओं से किसी एक कंपनी की नहीं पूरे भारत की मेडिकल इंडस्ट्री की बदनामी होती है। तो मामला देश के अंदर का हो या बाहर का, ऐसी घटनाएं किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं। नियामक एजेंसियों की अपर्याप्त संसाधनों की शिकायत भी एक हद तक वाजिब हो सकती है। अगर ऐसा है तो सरकार को यह शिकायत दूर करनी चाहिए। लेकिन इसके साथ यह भी मानना पड़ेगा कि इन एजेंसियों में इच्छा शक्ति का भी अभाव है, नहीं तो ऐसी घटनाएं बार-बार सामने नहीं आतीं। सवाल इंसानी जिंदगी का है, इसलिए ऐसे मामलों में कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए।
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