मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतारे जाने के सामाजिक मुद्दे को छद्म सेक्युलर और मुसलमान धार्मिक रंग दे रहे हैं जबकि उन्हीं लाउडस्पीकरों पर हनुमान चालीसा बजाए जाने को सामाजिक द्वेष की संज्ञा दी जा रही है। यानी उनका मजहब और उससे सम्बंधित बातों को लेकर अन्य धर्म भले सहिष्णुता अपनाएं लेकिन वे अपने एक्सक्लूसिव दायरे से बाहर आने की कोशिश नहीं करेंगे।
भारत में इन दिनों एक मुद्दा बड़ा गर्म है जिसने भारत के छद्म सेक्युलर लोगों को फिर खाद-पानी उपलब्ध करा दी है कि वो मुस्लिम अत्याचार का एक बार फिर राग आलप सकें। अगर हम ध्यान दें तो रोज दिन में पांच बार मस्जिदों से नमाज के लिए अजान दी जाती है। मुस्लिम धर्म गुरु कहते हैं कि मस्जिदों से केवल नमाज का समय बताने के लिए अजान दी जाती है जिससे उनके मत के मानने वाले अपने घर पर बैठकर ही अल्लाह का ध्यान-स्मरण कर लें। लेकिन अजान देने की क्या आवश्यकता है? क्या इस्लाम को मानने वालों को उनके खुदा या अल्लाह को याद करने का भी ख़्याल नहीं? जबकि वे तो पांचों समय की नमाज में एक ही बात दोहराते हैं कि अल्लाह से बड़ा कोई है ही नहीं। जब वे ‘अल्लाहु अकबर’ कहते हैं तो इसका अर्थ उनके अनुसार, ‘अल्लाह सबसे महान है’ यह ही तो होता है। वहीं ला-इलाहा -इल्लल्लाह का अर्थ तो पहले के अर्थ से कहीं ज्यादा आगे की बात करता है। ला-इलाहा -इल्लल्लाह का अर्थ है कि, अल्लाह के सिवा कोई इबादत के काबिल ही नहीं है। ऐसे शक्तिशाली अल्लाह के लिए मस्जिदों से याद कराने के लिए अजान की जाए ये तो अल्लाह के साथ भी गुस्ताखी ही तो होगी! हिंदुओं को तो ज़रूरत नहीं पड़ती किसी अजान या शोर की। वे तो स्वतः सुबह-शाम समय से मंदिर पहुंच ही जाते हैं और ना भी पहुंचे तो कोई परेशानी नहीं। भारत में इस्लामिक तुष्टीकरण के चलते अजान का कभी कोई राजनीतिक दल विरोध नहीं करता लेकिन देश के आम लोगों से पूछो कि, उनको सुबह की अजान किस तरह से परेशान करती है। मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर और उनसे होने वाले शोर से आम जनता को परेशानी तो होती ही है लेकिन क्या किसी की हिम्मत है जो इसके विरुद्ध अपनी आवाज़ उठा सके! लेकिन कुछ लोग इस अजान और उसके कारण होने वाले शोर एवं परेशानी को मुद्दा बना इलाहाबाद उच्च न्यायलय में गए और बाद में सर्वोच्च न्यायलय में भी यह विषय गया, दोनों ने ही माना की अजान मुस्लिम पंथ का आंतरिक मामला है लेकिन अजान के नाम पर लाउडस्पीकर से शोर करना इस्लाम का हिस्सा कैसे हो सकता है? क्या हम यह नकार सकते हैं कि देश के कितने ही परिवार इस लाउडस्पीकर के शोर से परेशान होते हैं! ऐसा नहीं कि केवल हिन्दू ही इससे परेशान हो रहा है। ये किसी पंथ का मुद्दा है ही नहीं, बल्कि यह एक सामाजिक मुद्दा है। समाज में सभी को शांतिपूर्वक रहने का अधिकार हमें संविधान से मिलता है। किसी को यह अधिकार किसने दे दिया कि वह सुबह-सुबह मस्जिद से चिल्लाकर आवाज दे कि, अब जागो! खुदा की इबादत का समय हो गया है। इस शोर पर कभी कबीर ने लिखा था,
काकर-पाथर जोड़ के, मस्जिद लियो चिनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भया खुदाय॥
यह हमारे भारत के संतों ने उस इस्लामिक काल में लिख दिया जब सभी शासक मुस्लिम ही थे। आज न्यायलयों के आदेश के बाद भी क्या सरकारें मान रही हैं और इन मस्जिदों से होने वाले अजान रूपी शोर को बंद कराने के लिए कोई कानून बना रही हैं? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। महाराष्ट्र में तो यह बड़ा मुद्दा बन गया जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख ने अजान के खिलाफ हनुमान चालीसा पढ़ने का ऐलान किया। यह चालीसा पढ़ने का मुद्दा नहीं है, बल्कि मैं इसे सम्पूर्ण समाज का मुद्दा मानता हूं। देश का मुसलमान योग को हिंदुओं का मानता है। वन्दे मातरम जिसने भारत को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लड़ने के लिए देश में एकत्व का निर्माण किया इसे भी पढ़ना इस्लामिक विचार के खिलाफ माना जाता है। तो प्रश्न उठता है कि हिन्दू या गैर मुस्लिम क्यों दिन में पांच बार बड़े भारी शोर में इस्लामिक इबादत के शब्दों को सुने।
अतः लाउडस्पीकर पर न तो अजान होनी चाहिए न हनुमान चालीसा। परमात्मा अन्तर्यामी है वह भवनाओं को समझता है उसकी प्रकृति में हमारी मौन स्वीकृति ही उसकी सबसे बड़ी प्रार्थन्स है। हमें चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं है।
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