धर्मनिरपेक्षता दो शब्दों से मिलकर बना है:- धर्म + निरपेक्षता
हिन्दू धर्म में मनुस्मृति में एक श्लोक है :-
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्मा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।
जिसके अनुसार धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं। धैर्य धारण करना, क्षमा कर देना, आत्मसंयम रखना, चोरी न करना, स्वच्छता या पवित्रता बनाए रखना, इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना, बुद्धि से काम लेना, विद्मा या ज्ञान अर्जित करना, सत्य बोलना, क्रोध न करना। धर्म के ये दस लक्षण जीवन के शाश्वत व मानवीय मूल्य हैं, और धर्म निरपेक्षता का मतलब है, जीवन के इन शाश्र्वत, मानवीय मूल्यों से उदासीन होना या इन्हें छोड़ देना।
आजकल सेकुलरिज्म को धर्मनिरपेक्षता माना जाता है, जबकि यह बिल्कुल गलत है। सेकुलर शब्द पाश्चात्य जगत से आया है। और भारत में भी सेकुलर शब्द को इसी अर्थ में अपनाया गया। विश्व में प्राचीन काल में राज्यों को दैवीय माना जाता था और रिलिजन को राज्य का आधार माना जाता था। किंतु बाद में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में रिलिजन को राज्य से अलग करने का प्रावधान आया तब सेकुलर वर्ड आया।
जिसका मतलब था कि राज्य के लिए सभी रिलिजन समान होंगे। भारत जब स्वतन्त्र हुआ और संविधान बनाया गया तो हमने अपने संविधान में सेकुलर वर्ड स्वीकार किया। किन्तु सेकुलर का समानार्थी शब्द धर्मनिरपेक्ष न होकर पंथनिरपेक्ष है। भारत में धर्म, रिलिजन का समानार्थी नहीं है। रिलिजन का अर्थ पूजा पद्धति से है जबकि धर्म का अर्थ जीवन पद्धति से है। भारत में धर्म जीवन जीने की शैली को कहते हैं। इसलिए जब संविधान का हिंदी रूपांतरण हुआ तो सेकुलर शब्द का अनुवाद धर्मनिरपेक्ष ना होकर पंथनिरपेक्ष किया गया।
पंथ का अर्थ है पूजा पद्धति या ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग, जो भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, इसी को संप्रदाय कहते हैं। प्रत्येक पंथ की अलग-अलग मान्यताएं होती हैं, पूजा करने की और ईश्वर को पाने की। किंतु धर्म के जो दस लक्षण बताए गए हैं, वह प्रत्येक मनुष्य में होने ही चाहिए।अतः धर्मनिरपेक्ष होना मनुष्य के लिए संभव ही नहीं है। क्योंकि इन गुणों के अभाव में मनुष्य, मनुष्य ही नहीं रह जाएगा। अतः स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्ष होना संभव ही नहीं है और सेकुलरिज्म का अर्थ धर्मनिरपेक्षता ना होकर पंथनिरपेक्षता है।
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